डॉक्टरों के अनुसार बाइपोलर डिसऑर्डर एक तरह का मानसिक विकार होता है जो डोपामाइन हार्मोन में असंतुलन होने के कारण होता है. इस असंतुलन की वजह से एक व्यक्ति के मूड या बर्ताव में बदलाव आने लगते हैं.

अगर कोई व्यक्ति बाइपोलर डिसऑर्डर से पीड़ित होता है तो उसे मेनिया या डिप्रेशन के दौरे पड़ते हैं यानी उसका मूड या तो बहुत हाई या लो रहता है.

बाइपोलर वन में मेनिया यानी तेज़ी के दौरे आते हैं. इस डिसऑर्डर में व्यक्ति बड़ी-बड़ी बातें करता है, लगातार काम करता है, उसे नींद की न के बराबर ज़रूरत महसूस होती और उसके बावजूद वो चुस्त-दुरुस्त रहता है.

इस डिसऑर्डर से पीड़ित व्यक्ति ज़रूरत से ज्यादा ख़र्च करता है और कोई भी फै़सला बिना सोचे समझे ले लेता है. उसका मन एक ज़गह पर स्थिर नहीं रहता है.

डॉ. पूजाशिवम जेटली
इमेज कैप्शन,डॉ. पूजाशिवम जेटली

मनोचिकित्सक डॉक्टर पूजाशिवम जेटली इसी डिसऑर्डर से पीड़ित एक मरीज़ का ज़िक्र करते हुए बताती हैं कि वो व्यक्ति कारोबारी परिवार से थे और उन्होंने बिज़नेस में कई अतार्किक फै़सले लेने शुरू कर दिए थे.

वो बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने लगे थे और बहुत ख़र्चीले हो गए थे. उन्हें नींद आनी बंद हो गई थी और खु़द को सबसे ताकतवर समझने लगे.

इन सबके साथ ही उनकी ‘सेक्स ड्राइव’ भी बढ़ गई थी. जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया तो वहां भी वो लोगों को नौकरी देने और अपनी संपत्ति उनके नाम करने जैसी बड़ी-बड़ी बातें करते थे.

वो बताती हैं कि ऐसे लोगों का वास्तविकता से नाता बिल्कुल टूट जाता है. ऐसे में अगर ऐसे लक्षण दो हफ़्ते से ज्यादा रहते हैं तो उसे ‘मेनिया’ या तेज़ी का दौरा कहा जाता है.

टाइप टू बाइपोलर(हाइपोमेनिया) – इसमें उदासी के दौरे आते है. इस डिसऑर्डर में मन उदास रहता है और बिना किसी कारण के रोते रहने का मन करने, किसी काम में बिल्कुल मन नहीं लगने, नींद न आने के बावजूद बिस्तर पर पड़े रहने का मन करने, नींद बहुत कम या ज़्यादा आना जैसे लक्षण होते हैं.

इससे पीड़ित मरीज़ ऊर्जा में कमी महसूस करता है. इस डिसऑर्डर से प्रभावित लोग मिलना-जुलना बंद कर देते हैं.

बाइपोलर डिसऑर्डर

कब सचेत हो जाना चाहिए?

हालाँकि आम जीवन में आप और हम इसी तरह के भाव से अक्सर गुज़रते होंगे लेकिन इससे आप और हम दो या तीन दिन में उबर जाते हैं लेकिन अगर ऐसी स्थिति दो हफ़्ते तक बनी रहती है तो ये हाइपोमेनिया में बदल सकता है.

डॉक्टर मनीषा सिंघल के अनुसार इनमें से अगर किसी भी लक्षण का दौरा एक बार पड़ता है तो समझ आ जाता है कि वो व्यक्ति बाइपोलर डिसऑर्डर का शिकार है.

डॉक्टरों के अनुसार बाइपोलर किसी भी उम्र के व्यक्ति में हो सकता है लेकिन इस डिसऑर्डर के औसतन 20-30 की उम्र में ज़्यादा मामले सामने आते हैं.

हाँलाकि आजकल यह भी देखा जा रहा है कि अब 20 से कम उम्र में या ‘अर्ली बाइपोलर डिसऑर्डर’ के मामले भी सामने आ रहे हैं

कोरोना महामारी की पाबंदियों के बीच मानसिक रोगियों के लिए हालात

दिल्ली स्थित सेंट स्टीफ़न अस्पताल में मनोचिकित्सक डॉक्टर रूपाली शिवलकर कहती है, ”हालांकि ये बीमारी बहुत पुरानी है लेकिन अब इस बीमारी की सही पहचान होने लगी है, लोग इस बारे में जागरूक हुए हैं और इसलिए ये बीमारी सामने भी आने लगी है. आज के समय में ये बीमारी बहुत आम हो चली है और 100 में से तीन या पांच प्रतिशत लोगों में ये डिसऑर्डर है.”

वो बताती हैं कि अगर किसी व्यक्ति में 40 साल की उम्र के बाद हली बार ऐसा डिसऑर्डर दिखाई देता है तो कई बार उसका सीधा संबंध मष्तिष्क में बदलाव से हो सकता है जिसे ‘ऑर्गेनिक मूड डिसऑर्डर’ कहा जाता है.

इसमें देखा जाता है कि कहीं मष्तिष्क की संरचना में बदलाव या कोई ख़राबी तो नहीं आ गई है.

डॉ रूपाली शिवलकर
इमेज कैप्शन,डॉ रूपाली शिवलकर

बाइपोलर और आत्महत्या का ख़याल

बच्चे जब किशोरावस्था में पहुँच रहे होते हैं तो हॉर्मोन्स में हो रहे बदलाव की वजह से उनके मूड में भी बदलाव होने लगते हैं. जैसे, वो किसी भी बात पर चिढ़ जाते है, नाराज़ या गुस्सा हो जाते हैं लेकिन ऐसी स्थिति लंबे समय तक नहीं बनी रहती.

ऐसे मामले ‘सायक्लोथायमिक डिसऑर्डर’ में आते हैं जहाँ किसी भी तरह का भाव चाहे वो गुस्सा हो या उदासी, वो माइल्ड (कम) होता है.

ऐसा आम तौर पर किशोरोवस्था में देखा जाता है और इसे नज़रअंदाज किया जा सकता है. लेकिन अगर किसी बच्चे में बाइपोलर डिसऑर्डर होता है तो वो ‘क्लासिकल मेनिया’ या डिप्रेशन के तौर पर आता है.

इसमें लंबे समय तक उदासी, बहुत गुस्सा होना, आक्रामकता, नींद की ज़रूरत महसूस न होना, ज़रूरत से ज़्यादा बातें या ख़र्च करना और सेक्शुअल कॉन्टेन्ट से सामान्य से ज़्यादा आकर्षित होना शामिल है

अकेलेपन से जूझने वाले लड़के की कहानी

अगर ऐसे लक्षण दो हफ्ते से ज़्यादा समय तक चलते हैं तो बाइपोलर की आशंका हो सकती है.

हाल ही में बॉलीवुड के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की ख़ुदकुशी की ख़बर के बाद मीडिया में ऐसी भी चर्चाएँ तेज़ हो गईं थीं कि वो बाइपोलर डिसऑर्डर से जूझ रहे थे.

मनोचिकित्सक डॉक्टर पूजाशिवम जेटली का कहना है, ”मेनिया या उदासी के एपिसोड में आत्महत्या करने की कोशिश की आशंका रहती है. क्योंकि दोनों ही स्थिति में व्यक्ति का वास्तविकता से नाता छूट जाता है. मेनिया में मरीज़ लगता है वो जो चाहे कर सकते हैं, उसके सोचने-समझने की शक्ति ख़त्म हो जाती है.”

“ऐसे में मरीज़ ऐसे एक्स्ट्रीम क़दम उठा सकता है. वहीं बाइपोलर डिप्रेशन में आत्महत्या की आशंका सबसे ज्यादा होती है. और अगर ऐसा व्यक्ति कभी आत्महत्या या नाउम्मीदी की बात करता है तो ये एक ‘रेड सिग्नल’ हो सकता है और उसका तुरंत इलाज कराया जाना चाहिए.”

मेंटल हेल्थ

बीमारी को नियंत्रित करना मुमकिन है

डॉक्टर रूपाली शिवलकर भी मानती हैं कि जब भी बाइपोलर डिसऑर्डर का कोई मरीज़ आता है तो वो इस बात को लेकर विशेष तौर पर सजग रहते हैं कि कहीं उसमें आत्महत्या के विचार तो नहीं आ रहे हैं.

वो बताती हैं कि बाइपोलर ताउम्र रहने वाली बीमारी है. थाइरॉइड, उच्च-रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा और मानसिक बीमारियाँ… ये सब ‘नॉन कम्युनिकेबल’डिसीज़ में गिनी जाती हैं. इन बीमारियों पर आप नियंत्रण पा सकते हैं और सामान्य जीवन जी सकते हैं लेकिन इन्हें पूरी तरह ख़त्म नहीं कर सकते.

मनोचिकित्सक डॉक्टर मनीषा सिंघल का कहना है,”ये दिमागी बीमारियाँ जेनेटिक (आनुवांशिक) भी होती है. अगर आपके परिवार में किसी को कभी किसी तरह का मानसिक रोग रहा हो तो आगे जाकर बच्चों में इसके लक्षण दिख सकते है.

मेंटल हेल्थ से जुड़े लोगों की मदद के लिए कई कंपनियां बात करने वाले ऐप बना रही हैं

”दिमागी बीमारियों में से बाइपोलर एक ऐसी बीमारी होती है जिसमें जब मरीज़ की स्थिति कंट्रोल में आ जाती है तो वे सामान्य जीवन जीने लगता है. ऐसे में उसे, उसकी बीमारी के बारे में बताया जा सकता है ताकि आगे जब ये लगे कि उसकी स्थिति ख़राब हो रही है, उसके मूड में बदलाव हो रहे हो तो वो उसे समझ सके और डॉक्टर के पास आकर सलाह ले सकता है”.

डॉक्टरों के अनुसार इसके इलाज के लिए ‘मूड स्टेबिलाइज़र’ या मष्तिष्क की झिल्ली (मेम्ब्रेन) में स्टेबिलाइज़र का इस्तेमाल किया जाता है ताकि डोपमाइन की मात्रा को संतुलित किया जा सके और बीमारी पर नियंत्रण पाया जा सके.

डॉक्टरों का कहना कि बाइपोलर डिसऑर्डर के मरीज़ों का किसी भी तरह के रचनात्मक काम में शामिल होना उनकी मदद कर सकता है.

ऐसे मरीज़ों को ज़्यादा देखभाल और प्यार की ज़रूरत होती है. मेनिया में कई बार लोग बहुत ग़लत फ़ैसले ले लेते हैं लेकिन जब वो सामान्य होने लगते हैं तो उन्हें अपनी ग़लती का एहसास और पछतावा होता है.

ऐसे में उन्हें शांति और प्यार से समझाने की ज़रूरत होती है. वहीं इस बात का भी ध्यान देना होता है कि वे दिमाग को शांत रखें और उसे थकाएँ नहीं. ऐसे मरीज़ों को लोगों से मिलने-जुलने के लिए भी प्रेरित करना चाहिए.

नोट: दवा और थेरेपी के ज़रिएमानसिक बीमारियों का इलाज संभव है. इसके लिए आपको किसी मनोचिकित्सक से मदद लेनी चाहिए. अगर आपमें या आपके किसी करीबी में किसी तरह की मानसिक तकलीफ़ के लक्षण हैं तो इन हेल्पलाइन नंबरों पर फ़ोन करके मदद ली जा सकती है:

  • सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्रालय-1800-599-0019
  • इंस्टिट्यूट ऑफ़ ह्यूमन बिहेवियर ऐंड एलाइड साइंसेज़- 9868396824, 9868396841, 011-22574820
  • नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ ऐंड न्यूरोसाइंसेज़- 080 – 26995000
  • विद्यासागर इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ ऐंड एलाइड साइंसेज़, 24X7 हेल्पलाइन-011 2980 2980